تاریخ انتشارشنبه ۱۰ مهر ۱۳۸۹ ساعت ۱۷:۵۰
کد مطلب : ۴۸۷
۰
plusresetminus
...
इमाम की विशेषताएं
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का जानशीन अर्थात इमाम, दीन को ज़िन्दा रखता और इंसानी समाज की ज़रुरतों को पूरा करता है। इमाम के व्यक्तित्व में इमामत के महान पद के कारण कुछ विशेषताएं पाई जाती हैं जिन में से कुछ मुख़्य विशेषताएं निम्न लिखित हैं।
 इमाम, मुत्तक़ी, परहेज़गार और मासूम होता है, जिसकी वजह से उससे एक छोटा गुनाह भी नहीं हो सकता।
 इमाम के इल्म का आधार पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का इल्म होता है और वह अल्लाह के इल्म से संपर्क में रहता है, अतः वह भौतिक व आध्यात्मिक, दीन और दुनिया की तमाम मुश्किलों के हल का ज़िम्मेदार होता है।
 इमाम में तमाम फ़ज़ायल (सदगुण) मौजूद होते हैं और वह उच्च अख़लाक़ का मालिक होता है।
 दीन के आधार पर इंसानी समाज को सही रास्ते पर चलाने की योग्यता रखता है।
उरोक्त वर्णित विशेषताओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि इमाम का चुनाव जनता के बस से बाहर है। अतः सिर्फ़ ख़ुदा वन्दे आलम ही अपने असीम इल्म के आधार पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के जानशीन (इमाम) का चुनाव कर सकता है। अतः इमाम की विशेषताओं में सब से बड़ी व मुख्य विशेषता उसका ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से मन्सूब नियुक्त) होना है।
प्रियः पाठको इमाम की इन विशेषताओं के महत्व को ध्यान में रखते हुए हम यहाँ पर इन में से हर विशेषता के बारे में संक्षेप में लिख रहे
हैं।

इमाम का इल्म
इमाम, जिस पर लोगों की हिदायत और रहबरी की ज़िम्मेदारी होती है, उसके लिए ज़रुरी है कि दीन के तमाम पहलुओं को पहचानता हो और उसके क़ानूनों से पूर्ण रूप से परिचित हो। कुरआने करीम की तफ़्सीर को जानता हो और पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की सुन्नत को भी पूरी तरह से जानता हो ताकि अल्लाह को पहचनवाने वाली चीज़ों और दीन की शिक्षाओं को भली भाँती स्पष्ट रूप से बयान करे और जनता के विभिन्न सवालों के जवाब दे तथा उनका बेहतरीन तरीके से मार्गदर्शन करे। स्पष्ट है कि ऐसी ही इल्म रखने वाले इंसान पर लोगों को विश्वास हो सकता है, और ऐसा इल्म सिर्फ़ ख़ुदा वन्दे आलम के असीम इल्म से संमपर्क रहने की सूरत में ही मुम्किन है। इसी वजह से शिया इस बात पर यक़ीन रखते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के जानशीन (इमाम) का इल्म ख़ुदा के असीम इल्म से संबंधित होता है।
हज़रत इमाम अली (अ. स.) सच्चे इमाम की निशानियों के बारे में फरमाते हैं।
“इमाम, अल्लाह के द्वारा हलाल व हराम किये गये कामों, विभिन्न आदेशों, अल्लाह के अम्र व नही और लोगों की ज़रुरतों का सब से ज़्यादा जानने वाला होता है।”
इमाम की इस्मत
इमाम की महत्वपूर्ण विशेषताओं और इमामत की आधारभूत शर्तों में से एक शर्त इस्मत है। (इस्मत यानी इमाम का मासूम होना) इस्मत एक ऐसा मल्का है जो हक़ीक़त के इल्म और मज़बूत इरादे से वजूद में आता है। चूँकि इमाम में ये दोनों चीज़ें पाई जाती हैं इस लिए वह हर गुनाह और खता से दूर रहता है। इमाम भी दीन की शिक्षाओं को जानने, उन्हें बयान करने, उन पर अमल करने और इस्लामी समाज की अच्छाईयों और बुराईयों की पहचान के बारे में ख़ता व ग़लती से महफूज़ रहता है।
इमाम की इस्मत के लिए कुरआन, सुन्नत और अक्ल से बहुत सी दलीलें पेश की गई हैं। उन में से कुछ महत्वपूर्ण दलीलें निम्न लिखित हैं हैं।
1. दीन और दीनदारी की हिफाज़त इमाम की इस्मत पर आधारित है। क्यों कि इमाम पर लोगों को दीन की तरफ़ हिदायत करने और दीन को तहरीफ़ (परिवर्तन) से बचाये रखने की ज़िम्मेदारी होती है। इमाम का कलाम (प्रवचन), उनका व्यवहार और उनके द्वारा अन्य लोगों के कामों का समर्थन या खंडन करना समाज के लिए प्रभावी होता हैं। अतः इमाम दीन को समझने और उस पर अमल करने (क्रियान्वित होने) में हर ख़ता व ग़लती से सुरक्षित होना चाहिए ताकि अपने मानने वालों को सही तरीके से हिदायत कर सके।
2. समाज को इमाम की ज़रुरत की एक दलील यह भी है कि जनता दीन, दीन के अहकाम और शरियत के क़ानूनों को समझने में खता व गलती से ख़ाली नहीं हैं। अतः अगर उनका रहबर, इमाम या हादी भी उन्हीँ की तरह हो तो फिर उस इमाम पर किस तरह से भरोसा किया जा सकता है ? दूसरे शब्दों में इस तरह कहा जा सकता है कि अगर इमाम मासूम न हो तो जनता उसका अनुसरन करने और उसके हुक्म पर चलने में शक व संकोच करेगी।
इमाम की इस्मत पर कुरआने करीम की आयतें भी दलालत करती हैं जिन में सूरह ए बकरा की 124 वीं आयत है, इस आयते शरीफ़ा में बयान हुआ है कि जब ख़ुदा वन्दे आलम ने जनाबे इब्राहीम (अ. स.) को नबूवत के बाद इमामत का बलन्द (उच्च) दर्जा दिया तो उस मौक़े पर हज़रत इब्राहीम (अ. स.) ने ख़ुदा वन्दे आलम की बारगाह में दुआ की कि इस ओहदे को मेरी नस्ल में भी बाक़ी रखना, जनाबे इब्राहीम (अ.स.) की इस दुआ पर ख़ुदा वन्दे आलम ने फरमायाः
यह मेरा ओहदा (इमामत) ज़ालिमों और सितमगरों तक नहीं पहुच सकता, यानी इमामत का यह ओहदा हज़रत इब्राहीम (अ. स.) की नस्ल में उन लोगों तक पहुंचेगा जो ज़ालिम नही होंगे।
हालांकि कुरआने करीम ने ख़ुदा वन्दे आलम के साथ शिर्क को अज़ीम ज़ुल्म क़रार दिया है और अल्लाह के हुक्म के विपरीत काम करने को अपने नफ़्स (आत्मा) पर ज़ुल्म माना है और यह गुनाह है। यानी जिस इंसान ने अपनी ज़िन्दगी के किसी भी हिस्से में कोई गुनाह किया है, वह ज़ालिम है अतः वह किसी भी हालत में इमामत के ओहदे के योग्य नहीं हो सकता है।
दूसरे शब्दो में यह कह सकते हैं कि इस बात में कोई शक नहीं है कि जनाबे इब्राहीम (अ. स.) ने इमामत को अपनी नस्ल में से उन लोगों के लिए नहीं मांगा था, जिन की पूरी उम्र गुनाहों में गुज़रे या जो पहले नेक हों और बाद में बदकार हो जायें। अगर इस बात को आधार मान कर चलें तो सिर्फ दो किस्म के लोग बाक़ी रह जाते हैं।
1. वह लोग जो शुरु में गुनहगार थे, लेकिन बाद में तौबा कर के नेक हो गए।
2. वह लोग जिन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दगी में कोई गुनाह न किया हो।
3. ख़ुदा वन्दे आलम ने अपने कलाम में पहली किस्म को अलग कर दिया, यानी पहले गिरोह को (वह लोग जो शुरु में गुनहगार थे, लेकिन बाद में तौबा कर के नेक हो गए।) इमामत नहीं मिलेगी इस का नतीजा यह निकलता है कि इमामत का ओहदा सिर्फ़ दूसरे गिरोह से मख्सूस हैं, यानी उन लोगों से जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी में कोई गुनाह न किया हो।
इमाम, समाज को व्यवस्थित करने वाला होता है
चूँकि इंसान एक समाजिक प्राणी है और समाज इसके दिल व जान और व्यवहार को बहुत ज़्यादा प्रभावित करता है, अतः इंसान की सही तरबियत और अल्लाह की तरफ़ बढ़ने के लिए समाजिक रास्ता हमवार होना चाहिए और यह चीज़ इलाही और दीनी हुकूमत के द्वारा ही मुम्किन हो सकती है। अतः ज़रूरी है कि लोगों का इमाम व हादी ऐसा होना चाहिए जिसमें समाज को चलाने व उसे दिशा देने की योग्यता पाई जाती हो और वह कुरआन की शिक्षाओं और नबी की सुन्नत (कार्य शैली) का सहारा लेते हुए बेहतरीन तरीके से इस्लामी हुकूमत की बुनियाद डाल सके।
इमाम का अख़लाक बहुत अच्छा होता है
इमाम चूँकि पूरे इंसानी समाज का हादी (मार्गदर्शक) होता है अतः उसके लिए ज़रूरी है कि वह तमाम बुराईयों से पाक हो और उसके अन्दर बेहतरीन अख़लाक पाया जाता हो, क्यों कि वह अपने मानने वालों के लिए इंसाने कामिल का बेहतरीन नमूना माना जाता है।
हज़रत इमामे रिज़ा (अ. स.) फरमाते हैं कि :
इमाम की कुछ निशानियां होती हैं, जैसे, वह सब से बड़ा आलिम, सब से ज़्यादा नेक, सब से ज़्यादा हलीम (बर्दाश्त करने वाला), सब से ज़्यादा बहादुर, सब से ज़्यादा सखी (दानी) और सब से ज़्यादा इबादत करने वाला होता है।
इसके अलावा चूँकि इमाम, पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का जानशीन (उत्तराधिकारी) होता है, और वह हर वक़्त इंसानों की तालीम व तरबियत की कोशिश करता रहता है अतः उसके लिए ज़रूरी है कि वह अख़लाक़ के मैदान में दूसरों से ज़्यादा से सुसज्जित हो।
हज़रत इमाम अली (अ. स.) फरमाते हैं कि :
जो इंसान (अल्लाह के हुक्मे) ख़ुद को लोगों का इमाम बना ले उसके लिए ज़रुरी है कि दूसरों को तालीम देने से पहले ख़ुद अपनी तालीम के लिए कोशिश करे, और ज़बान के द्वारा लोगों की तरबियत करने से पहले, अपने व्यवहार व किरदार से दूसरों की तरबियत करे।
इमाम ख़ुदा की तरफ़ से मंसूब (नियुक्त) होता है
शिया मतानुसार पैग़म्बर (स.) का जानशीन (इमाम) सिर्फ अल्लाह के हुक्म से चुना जाता है और वही इमाम को मंसूब (नियुक्त) करता है। जब अल्लाह किसी को इमाम बना देता है तो पैग़म्बर (स.) उसे इमाम के रूप में पहचनवाते हैं। अतः इस मसले में किसी भी इंसान या गिरोह को हस्तक्षेप का हक़ नहीं है।
इमाम के अल्लाह की तरफ़ से मंसूब होने पर बहुत सी दलीलें है, उनमें से कुछ निमन लिखित हैं।
1. कुरआने करीम के अनुसार ख़ुदा वन्दे आलम तमाम चीज़ों पर हाकिमे मुतलक़ (जो समस्त चीज़ों को हुक्म देता है या जिसका हुक्म हर चीज़ पर लागू होता है, उसे हाकिमे मुतलक़ कहते हैं।) है और उसकी इताअत (अज्ञा पालन) सब के लिए ज़रुरी है। ज़ाहिर है कि यह हाकमियत ख़ुदा वन्दे आलम की तरफ़ से (इसकी योग्यता रखने वाले) किसी भी इंसान को दी जा सकती है। अतः जिस तरह नबी और पैग़म्बर (अ. स.) ख़ुदा की तरफ़ से नियुक्त होते हैं, उसी तरह इमाम को भी ख़ुदा नियुक्त करता है और इमाम लोगों पर विलायत रखता है यानी उसे समस्त लोगों पर पूर्ण अधिकार होता है।
2. इस से पहले (ऊपर) इमाम के लिए कुछ खास विशेषताएं लिखी गई हैं जैसे इस्मत, इल्म आदि...., और यह बात स्पष्ट है कि इन ऐसी विशेषताएं रखने वाले इंसान की पहचान सिर्फ़ ख़ुदा वन्दे आलम ही करा सकता है, क्यों कि वही इंसान के ज़ाहिर व बातिन (प्रत्यक्ष व परोक्ष) से आगाह है, जैसा कि ख़ुदा वन्दे आलम कुरआने मजीद में जनाबे इब्राहीम (अ. स.) को संबोधित करते हुए फरमाता हैः
हम ने, तुम को लोगों का इमाम बनाया।
सबसे अच्छी बात
अपनी बात के इस आखरी हिस्से में हम उचित समझते हैं कि आठवें इमाम हज़रत अली रिज़ा (अ.स.) की वह हदीस बयान करें जिसमें इमाम (अ. स.) इमाम की विशेषताओं का वर्णन किया है।
इमाम (अ. स.) ने कहा कि : जिन्होंने इमामत के बारे में मत भेद किया और यह समझ बैठे कि इमामत एक चुनाव पर आधारित मसला है, उन्होंने अपनी अज्ञानता का सबूत दिया।....... क्या जनता जानती है कि उम्मत के बीच इमामत की क्या गरीमा है, जो वह मिल बैठ कर इमाम का चुनाव कर ले।
इसमें कोई शक नही है कि इमामत का ओहदा बहुत बुलन्द, उच्च व महत्वपूर्ण है और उस की गहराई इतनी ज़्यादा है कि लोगों की अक्ल उस तक नहीं पहुँच पाती है या वह अपनी राय के द्वारा उस तक नहीं पहुँच सकते हैं।
बेशक इमामत वह ओहदा है कि ख़ुदा वन्दे आलम ने जनाबे इब्राहीम (अ. स.) को नबूवत व खिल्लत देने के बाद तीसरे दर्जे पर इमामत दी है। इमामत अल्लाह व रसूल (स.) की ख़िलाफ़त और हज़रत अमीरुल मोमेनीन अली (अ. स.) व हज़रत इमाम हसन व हज़रत इमाम हुसैन (अ. स.) की मीरास है।
सच्चाई तो यह है कि इमामत, दीन की बाग ड़ोर, मुसलमानों के कामों की व्यवस्था की बुनियाद, मोमिनीन की इज़्ज़त, दुनिया की खैरो भलाई का ज़रिया है और नमाज़, रोज़ा, हज, जिहाद, के कामिल होने का साधन है।, इमाम के ज़रिये ही (उस की विलायत को क़बूल करने की हालत में) सरहदों की हिफ़ाज़त होती है।
इमाम अल्लाह की तरफ़ से हलाल कामों को हलाल और उसकी तरफ़ से हराम किये गये कामों को हराम करता है। वह ख़ुदा वन्दे आलम के हक़ीक़ी हुक्म के अनुसार हुक्म करता है) हुदूदे उलाही को क़ायम करता है, ख़ुदा के दीन की हिमायत करता है, और हिकमत व अच्छे वाज़ व नसीहत के ज़रिये, बेहतरीन दलीलों के साथ लोगों को ख़ुदा की तरफ़ बुलाता है।
इमाम सूरज की तरह उदय होता है और उस की रौशनी पूरी दुनिया को प्रकाशित कर देती है, और वह ख़ुद उफ़क़ (अक्षय) में इस तरह से रहता है कि उस तक हाथ और आँखें नहीं पहुँच पाते। इमाम चमकता हुआ चाँद, रौशन चिराग, चमकने वाला नूर, अंधेरों, शहरो व जंगलों और दरियाओं के रास्तों में रहनुमाई (मार्गदर्शन) करने वाला सितारा है, और लड़ाई झगड़ों व जिहालत से छुटकारा दिलाने वाला है।
इमाम हमदर्द दोस्त, मेहरबान बाप, सच्चा भाई, अपने छोटे बच्चों से प्यार करने वाली माँ जैसा और बड़ी - बड़ी मुसीबतों में लोगों के लिए पनाह गाह होता है। इमाम गुनाहों और बुराईयों से पाक करने वाला होता है। वह मख़सूस बुर्दबारी और हिल्म (धैर्य) की निशानी रखता है। इमाम अपने ज़माने का तन्हा इंसान होता है और ऐसा इंसान होता है, जिसकी अज़मत व उच्चता के न कोई क़रीब जा सकता है और न कोई आलिम उस की बराबरी कर सकता है, न कोई उस की जगह ले सकता है और न ही कोई उस जैसा दूसरा मिल सकता है।
अतः इमाम की पहचान कौन कर सकता है ? या कौन इमाम का चुनाव कर सकता ? यहाँ पर अक़्ल हैरान रह जाती है, आँखें बे नूर, बड़े छोटे और बुद्दीजीवी दाँतों तले ऊँगलियाँ दबाते हैं, खुतबा (वक्ता) लाचार हो जाते हैं और उन में इमाम का क्षेष्ठ कामों की तारीफ़ करने की ताक़त नहीं रहती और वह सभी अपनी लाचारी का इक़रार करते हैं।
https://ayandehroshan.ir/vdccamq082bq4.la2.html
ارسال نظر
نام شما
آدرس ايميل شما